'ऐसी वाणी बोलिए कि जम के झगड़ा होए'!
'चाहे राजनीतिक झगड़ा हो आ चाहे कौनो
झगड़ा हमसे थोड़े ही कोई जीत सकता है'! चूंकि मैं बिहार से हूं इसलिए मुझे बिहारी भाषा बोलने
में कोई परेशानी नहीं होती, सो मैंने शुरू में ही ऐलान कर दिया
है कि कोई हमसे कौनो लड़ाई में जीतिए नहीं सकता है। यहां इतना कह कर फिलहाल मैं
अपनी डींगे हांकना बंद करता हूं और आज चर्चा करते हैं बिहार की राजनीति में भाषा
के मान-मर्यादा की जो सालों से ताक पर रखे-रखे अब सड़ गई है। मौजूदा दौर में राज्य
में चल रही राजनीतिक दुश्मनी ने इस सड़ी भाषा की बदबू को और भी दुश्वार कर दिया
है। हर कोई ज्यादा से ज्यादा कड़ी और सड़ी बयानबाजी देकर इस बू को बिहार की आबोहवा
में फैला रहा है और बेचारी जनता को यह समझ नहीं आ रहा है कि वो हाथ नाक पर रखे, कान पर रखे या फिर माथे पर। मेरे
विचार से माथे पर हाथ रखना ज्यादा उचित होगा क्योंकि बिहार के राजनेताओं की ऐसी
कड़वी बोली राज्य के राजनीतिक भविष्य को सियासी सड़ांध की ओर ले जाने का काम रही
है जो निश्चित तौर पर गौरवमयी बिहार के माथे पर चिंता की लकीर भी खींच रही है। तो
अब आप भी माथे पर हाथ रख लीजिए क्योंकि अब अगले कुछ अनमोल वाक्यों में हम कुछ
राजनेताओं के ऐसे ही बेमोल अमर्यादित बयानों का जिक्र करने वाले हैं।
जरा गौर
फरमाइएगा -
‘नरेंद्र मोदी का
खाल उधड़वा देंगे हम’,'बियाह में बुला रहा है, बेइज्जत कर रहा है। बियाह में
जायेंगे तो वहीं पोल खोल देंगे। लड़ाई चल रहा है। हम नहीं मानेंगे। हम उसके घर में घुस के मारेंगे।हम
रुकने वाले नहीं हैं','लालू का
भाषण अवसाद में बड़बड़ाते मनोरोगी जैसा', 'पीएम पर कोई ऊंगली उठी तो हाथ काट देंगे', 'तेजप्रताप को थप्पड़ मारने वाले को
1 करोड़ का इनाम', 'जदयू के पास तीन अल्सेशियन कुत्ते हैं। ये प्रवक्ता
हैं', 'बचकर रहिएगा लालू जी। ऐसा काटेंगे
कि कहीं इजेक्शन भी नहीं मिलेगा', 'हम ऐसे लोग हैं जो सीने पर चढ़कर मुंह तक नोच लेते
हैं', 'अदालती चक्कर में रांची जाएं तो
कांके की मानसिक आरोग्यशाला में जाकर इलाज करा लें', ‘लालूजी के साथ कोई अप्रिय घटना घटी तो हम किसी
को छोड़ेंगे नहीं', 'मोदी का
भी हाथ काटने वाले बिहार में हैं', नीतीश कुमार की राजगीर
यात्रा पर सवाल उठे तो बयान आया कि 'नीतीश की समाधि राजगीर
में ही बनेगी' इसपर जवाब आया कि 'लालू
की समाधि तो जेल में बननी तय है', 'नीतीश कुमार की हालत
प्रेग्नेंट महिला की तरह है और सुशील मोदी आशा कार्यकर्ता हैं', 'पलटू राम-सलटू
राम' से लेकर 'घसीटा राम' तक।
विशेष
नोट: (ये सभी बयान अलग-अलग समय पर अलग-अलग माननीयों द्वारा अलग-अलग संदर्भ में
दिये गये हैं)
ऐसे बयानों
की फेहरिस्त बेहद लंबी है, सो सभी
का जिक्र कर पाना यहां मुमकिन
नहीं। बहरहाल, अभी आप अपने हाथ माथे से नहीं हटा सकते क्योंकि आगे इन्हीं बयानों
के संदर्भ में बिहार के राजनीतिक भविष्य पर हम विस्तृत चर्चा करेंगे। कहते हैं
किसी राज्य की राजनीति राज्य के सामाजिक और युवाओं के मानसिक परिवर्तन को काफी हद
तक प्रभावित करती है। बिहार जैसे राज्य जो शिक्षा के स्तर पर पहले से ही पिछड़े
हुए हैं, जहां
स्कूलों की व्यवस्था और शिक्षकों के ज्ञान भंडार पहले से ही सवालों के कटघरे में
है। उस राज्य के बड़बोले नेताओं के ऐसे बिगड़े बोल युवा पीढ़ी को क्या सीखा रहे हैं,बतलाने की जरुरत नहीं। आपकी भाषा आपके शिक्षित, सभ्य और मर्यादा पसंद होने का
परिचायक होती है, लेकिन
राज्य की राजनीति में गिरती भाषायी शुचिता ने सिर्फ और सिर्फ राज्य का बंटाधार
करने का काम किया है। बिहार
को चाणक्य, सम्राट
अशोक, भगवान
महावीर और आर्यभट्ट की धरती कहा जाता है। यहां बुद्ध ने अलौकिक ज्ञान पाया तो वहीं
इस ऐतिहासिक धरती पर पैदा हुए रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वर नाथ रेणु, रामधारी सिंह दिनकरऔर विद्यापति
जैसे महान शख्सियतों के साहित्यिक दर्शन का आज पूरी दुनिया अनुसरण कर रही है।
लेकिन मौजूदा परिदृश्य काफी बदला-बदला सा है और ऐस में सवाल यह है कि 21वीं सदी का बिहार आज किस दिशा में
जा रहा है? सियासी
दुश्मनी में शब्दों के बाण इतनी जहरीहले क्यों हो गए हैं? बिहार के कुछ बड़े राजनेताओं की
पहचान आज उनकी गंदी जुबान से क्यों की जाने लगी है? क्या ऐसी भाषाओं से राजनेताओं की
छवि के साथ-साथ उस मिट्टी की खुशबू भी खराब नहीं होती जहां से वो ताल्लुक रखते हैं? क्या जनता के लिए विकास करने के बजाय
जुबान से आग उगलकर लोकप्रियता पाना नेताओं के लिए ज्यादा आसान हो चुका है?
हालांकि,
सियासत में ऐसे बयानवीर देश भर में मौजूद हैं, लेकिन यहां चर्चा बिहार को लेकर
इसलिए भी हो रही है क्योंकि
अब भी बिहारियों को कई बार अलग-अलग राज्यों में पिछड़े और असभ्य के तौर पर देखा
जाता है।हालांकि,
सच यह है कि बिहारियों की लगन, उनकी मेहनत और उनके बेहद ही उपजाऊ दिमाग की कायल पूरी दुनिया है। लेकिन
बिहार की इस छवि को क्या हमारे सियासतदांनों के ये बोल दागदार नहीं करते? अचरज इस बात को देख कर होती है कि
बिहार के युवा नेता भी इस होड़ में शामिल हैं। होना तो यह चाहिए था कि जिन युवाओं
के कंधे पर राज्य की सियासत को संभालने का जिम्मा है वो इस जिम्मेदारी को निभाते
हुए राजनीतिक मान-मर्यादा, भाषा
और शिष्टाचार की पुरानी परंपराओं को तोड़ एक नई परिभाषा राज्य हित में गढ़ते, लेकिन हो इसके बिल्कुल विपरीत रहा
है। राज्य के सबसे बड़े सियासी घराने के नूर-ए-चश्म को राजनीति में आए सालों हो गए, कुछ उम्मीदें तो उनसे भी थीं कि
युवा नेता के तौर पर बिहार के फलक पर उभरने के बाद बरसों से चली आ रही बेलगाम
राजनीतिक भाषा को वो अपनी शानदार वाक्य शैली से बदल देंगे,पर वाक्य तो हर रोज नए विवाद पैदा
कर रहे हैं। हाल के दिनों में बिहार के नेताओं की बोली किसी गोली की तरह चल रही
है। आए दिन एक-दूसरे के खिलाफ बोली जा रही कड़वी बोली से बिहार की अस्मिता और उसकी
पहचान छलनी हो रही है और साथ ही साथ मर रहे हैं सियासत में राजनीतिक आदर्श। ऐसा लग
रहा है कि नेताओं में इस बात की होड़ मची है कि 'ऐसी वाणी बोलिए कि जमके झगड़ा होए'अर्थात् कुछ ऐसी कड़वी और वाहियात बात बोलनी है जिससे
घनघोर शब्द युद्ध छिड़े और वाहियात बयानों का बवंडर ही उठ जाए।
कड़वी
बोली बोलने की इस होड़ में राज्य का कोई भी सियासी दल और उसके नेता पीछे नहीं हैं।
हर दल बढ़-चढ़कर इस प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहा है। हम शायद भूल गए हैं कि बचपन में हमें सिखाया गया था कि आप
किसी से वैसा ही बोलें या व्यवहार करें जैसा आप सामने वाले से पाना चाहते हैं। इसे
दूसरे शब्दों में ऐसे भी कहा जाता है कि आप जैसा किसी से बोलेंगे आप वैसा ही उससे
सुनने की अपेक्षा रखें। कहने का मतलब है कि कोई तो हो जो राज्य में नेताओं को
भाषाई गरिमा की याद दिलाए, उन्हें
समझाए कि एक-दूसरे के खिलाफ राजनीतिक शत्रुता निकालने की जल्दबाजी में उनके ये बोल
राज्य की पहचान को ठेस पहुंचा रहे हैं। जो भाषा हम बिहार के युवा नस्ल को सीखा रहे
हैं वो पीढ़ियों तक याद रखी जाएगी, इसलिए सबके लिए जरूरी है कि'ए भाई जरा संभल कर बोलो'।
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